July 27, 2024

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महाराणा प्रताप से जुड़े मार्मिक कथानक की हकीकत
अमरसिंह की बेटी से छीनी गई थी घास की रोटी !

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विश्व इतिहास में स्वतंत्रता के नायक के रूप में प्रतिष्ठित मेवाड़ के यशस्वी महाराणा प्रताप से दिल्ली के साम्राज्यवादी सम्राट अकबर के साथ चले लम्बे संघर्ष की कई कहानियाँ लोक प्रचलित है, जो घर-घर में कही सुनी जाती हैं। इनमें महाराणा प्रताप के परिवार का घास की रोटी खाना और कुँवर अमर सिंह के हाथ से बनबिलाव का रोटी लेकर भाग जाना प्रमुख है। इस घटना पर इतिहास में विवाद है। प्रथम तो यह कि – जिसे घास की रोटी कहा गया है, वह कुरी , बट्टी , कांगणी और माल नामक खाद्यान्न थे , जो उस समय मेवाड़ के जंगलों में बहुतायत में होते थे। चूंकि ये यहाँ के जलवायु में स्वतः ऊगते थे और पकने पर सहेज लिए जाते थे, अतः इन्हें घास – फूस की संज्ञा दे दी गई। ये खाद्यान्न अब दुर्लभ है; फिर भी वार त्योहार खाए जाते हैं। द्वितीय – यह कि पौष्टिक ‘माल’ नामक अनाज से बनाई गई रोटी-बाटी राजकुमार अमरसिंह के हाथ से नहीं वरन्‌ अमरसिंह की बेटी के हाथ से एक बंदर ले भागा था। काल गणना के अनुसार तब तक राजकुमार अमरसिंह की शादी हो चुकी थी और उनके एक खेलने – कूदने लायक बेटी भी थी, जो अपने माता-पिता और दादा -दादी के साथ ही वनवास व्यतीत कर रही थी।
राजस्थानी के स्वनाम धन्य कवि कन्हैयालाल सेठिया ने इतिहास की गहराई में जाए बिना एक कविता लिखी जो बहुत लोकप्रिय हुई –

इसी मार्मिक घटना को कारण बताते हुए सेठियाजी ने महाराणा प्रताप का धैर्य टूटने और दिल्ली के सम्राट अकबर को संधि के लिए पत्र लिखने की बात रच दी, जो लोकमन में घर कर गई।
दूसरी ओर मेवाड़ के अंतिम राजकवि राव मोहनसिंह रचित ग्रन्थ ‘प्रताप यश चन्द्रोदय’ में यह घटना राजकुमार अमर सिंह की बेटी के साथ होना बताई गई है। यथा- राजकुमारी खेलती रही और उसके लिए बनाई गई ‘माल’ की रोटी बन्दर लेकर भाग गया, जिससे वह बिलखने लगी और उसने जिद पकड़ ली की वह ‘माल’ की रोटी ही खाएगी, किन्तु ‘माल’ जंगल में ढूंढने पर भी नहीं मिला। मोहनसिंह लिखते हैं –

अरे घास री रोटी ही ,
जद बन बिलावड़ो ले भाग्यो,
नान्हो सो अमर्यो चीख पड्यो,
राणा रो सोयो दुःख जाग्यो।…

काढे दिन अनबिन किते, पातल जुत परिवार।
इक दिन राजकुमारिनें, किय रव करुनांगार ॥
दासी आई दोरिकें, प्रभुसों करी पुकार।
ले भागो बन्दर लपकि, बाई को बटवार ॥
माल धांन को खांनकों, बांटी गए सब खाय।
वे खेलत रहिये उतें,बन्दर गयो चटाय ॥
तब प्रताप जा कुँवरी को, लीनी गोद उठाय।
उचर्यो मधुरे ऊमरे, देहुं लेहु किन खाय ॥
कुँवरी हट करिकें कह्यो, ऊंमर खावूं नाय।
मोकों बटिये माल के दाता देहुं दिलाय॥

इस प्रकार अपनी प्यारी पौत्री के रो-रो कर हठ करने और उसे मनपसंद खाना नहीं खिला पाने की विवशता ने महाराणा प्रताप के धैर्य को नहीं तोड़ा ,बच्ची को तो उन्होंने बहला लिया। महाराणा के धैर्य को तोड़ा कँवर अमरसिंह एवं कँवरानी के बीच एक रात हुए संवाद ने।
महाराणा श्रीभूपालसिंह के दरबारी कविराव मोहनसिंह ‘प्रताप यश चन्द्रोदय’ में बताते हैं- जंगल में लगे शिविर की एक छोलदारी में पुत्र और पुत्रवधू आपस में बतिया रहे थे। बात यह थी कि राणा को अपनी जिद छोड़कर अकबर को शाह मानते हुए ठाठ – बाट का जीवन गुजारना चाहिए। यह बात राणा ने सुन ली। बेटे और बहू का इस प्रकार की बात करना राणा का चुभ गया I सुबह होने पर प्रताप ने अमरसिंह को बुलाकर रामपाट संभालने तथा खुद संन्यास लेने की बात कही ;

अमर तिंहारी बात अमर रहेगी यह ,
विशय के माते भूंडे भाव क्यों न भरलो।
हमसों न होंन केहे कारज अगम्य यैसे,
इनको अपार भार आपने उपर लो।
त्यागि रनसाज मुनिराज व्है रहेंगे हम ,
तुम धरराज व्है अधीरताई धरलो।
सुक्रत नसाय पथ अक्रत के पांयदेय,
साहजू की सेवा आज अंगीकृत कर लो।

यह सुनकर महाराज कुमार की नजरे जमीन में गड़ गई। पछतावे में आँखे भर आई। यह आधी अधूरी खबर जासूसो ने दिल्ली भेज दी। तब वहाँ मौजूद राजमाता ने बेटे व बहू को कड़ी फटकार लगाई;

जानती थी लाल मेरो लेके करवाल हाथ ,
स्वामी के समान शत्रु दल पे सजायेगो I
जानती थी मेरो पूत करिके अभूत जंग,
पाजी मुगलांन जूके पिंजर पॅंजायगो I
जानती थी मेरो कौंर गंजीहेन कूरनतें ,
गंजिहैंतो वीर अभिमन्युज्यों गँजायगो।
पेंन जानती थी हाय सुख के अधीन होय,
अमर कुमार मेरी कोंख कों लजाएगो ॥

महाराज कुमार अमरसिंह ने यह करारी फटकार सुन विगलित मन माता-पिता के चरण छूकर क्षमा मांगते हुए कुल की मान मर्यादा के लिए जीवन भर युद्धरत्त रहने का संकल्य लिया ;

चाहत क्षमां हूं पितु मातु के चरण छुय,
जीहते कढ़ी है जैसी जिय में धरोंगोना।
आन रायजादन ज्यों तजिकें मृजाद निज ,
सीत घांम पावस के दुखतें डरोंगोना।
अकृतकों स्वीकृत करोंगो नांहि मानिसंक,
ओजकों धरोंगो महाफोजतें फरोंगोना।
दूर्ग उधरोंगो गंजिमुगल हैंरोंगो नांम ,
अमर हमारो कबों पंजिके परोंगोना ॥

इस नम्रता के साथ महाराज कुमार के क्षमा चाहने पर राजरानी ने बेटे को गले से लगा लिया। सारी बात साफ़ हो गई। उधर जासूसों की आधी अधूरी खबर सुनकर कि महाराणा राज पाट छोड़कर संन्यास ले रहे है और अमर सिंह अधीनता स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया है, बादशाह अकबर की प्रफुल्लता की सीमा न रही। वह कहने लगा;

आज मिली आठों सिद्धि आज मिली नोऊनिधि ,
आज ही कुबेर सम्पती मो हाथ आई है।
आज खुल्यो भाग मेरो आज मिल्यो देवबाग ,
आज ही सचीलो संजमनी हम पाई है।
आज देऊँ सारे सुखसाज राज संपतीसु,
आज देऊँ देऊँ यह मन में समाई है।
क्यों न देऊँ जब्बर करीहैं हों अकब्बर ने ,
बब्बर प्रतापजूसों पाई पातशाही है॥
इसी बीच अकबर के दरबारी पृथ्वीराज (पीथल) ने जासूसों की सूचना पर शंका जताते हुए कई तर्क दिए तब समाचार की पुष्टि किए जाने का जिम्मा बादशाह ने उन्हें ही सौंप दिया। बाद में सारे घटनाक्रम की हकीकत का पता चलने पर अकबर को भारी निराशा हुई। इस प्रकार मेवाड़ के ऐतिहासिक घटनाक्रमों में कई पैच है , जिनके अनुसंधान पुनर्लेखन की आवश्यकता है।