उदयपुर। 2 अगस्त। ‘‘चरनोट’’ इस शब्द का अर्थ होता है वह जगह जहां पर किसी भी प्रकार का निर्माण निषेध है और वह सिर्फ चारागाह ही रहेगी, मतलब पशुओं के चरने की जगह। वैसे ऐसी जगहों की तलाश पशुओं को काफी रहती है क्यूंकि वहां इनको किसी भी प्रकार की रोक टोक नहीं होती है। अमूमन चरनोट शब्द का उपयोग राजनीतिक हल्कों में भी किया जाता है। जिस जगह के स्थानीय कार्यकर्ता कमजोर दिखते है और वहां कोई बाहरी कद्दावर आकर अपना प्रभाव जमाने की कोशिश में लग जाता है तो उस इलाके के सियासतदार यही कहते दिखाई देते है। ऐसे में उदयपुर शहर के चौक – चौराहों, सोशल मीडिया के प्लेटफार्म्स पर भी कयासों की दुनिया में वे बाहरी नाम सामने आ रहे हैं जिनका उदयपुर और यहां के मुद्दों से कभी कोई लेना देना नहीं रहा।
दोनों ही पार्टियां जीत से आश्वस्त उदयपुर शहर विधानसभा पर लगातार चार बार विधायक रहे पूर्व गृहमंत्री और नेता प्रतिपक्ष गुलाबचंद कटारिया के असम का राज्यपाल बनने के बाद सालों से उम्मीद लगाएं बैठे शहर भाजपा के कद्दावर टिकिट पाने के लिए एड़ी चोटी का दम लगा रहे हैं। वहीं सालों से अजेय रही भाजपा की इस सीट पर कटारिया के जाने के बाद कांग्रेस में जीत की आस जगी है, क्यूंकि पार्टी के शहरी दिग्गजों का मानना हैकि इस बार वयोवृद्ध डॉ. गिरिजा व्यास चुनाव नहीं लड़ेंगी, इसलिए उनमें से किसी एक को टिकिट मिल सकता है और इस बार जीत भी पक्की है। वे सभी अपने अपने हिसाब से शीर्ष नेतृत्व को लुभाने में लगे हुए हैं। टिकिट पाने की हर सम्भव जुगत उदयपुर शहर में भाजपा हो या कांग्रेस, दोनो ही पार्टियों के दिग्गज कार्यकर्ता इस बार अपना भाग्य आजमाना चाह रहे हैं क्यूंकि अनुमान है कि जो नाम अब से पहले सामने आते रहे हैं उनमें से कोई चुनाव नहीं लड़ेगा, इसलिए दोनो ही पार्टियों के दावेदार अपनी किस्मत आजमाने में लगे हैं, किसी भी प्रकार के आयोजन पर शहर में हॉर्डिंग्स की प्रतिस्पर्धा, बड़े – बड़े मंच बनाकर भीड़ को एकत्रित करना, किसी भी आंदोलन में ऐसा कुछ करना की सबकी निगाहें उसी पर टिक जाए अखबारों और चैनल्स में वो ही वो प्रमुखता से दिखे, या सोशल मीडिया पर समर्थकों से प्रचार करवाना यह सब आमतौर पर देखा जा सकता है। कयासों से बनी शहर के दावेदारों की सूची उदयपुर शहर भाजपा का गढ़ माना जाता है, पिछले चार दशक में दो तीन मौके छोड़ दिए जाए तो विधानसभा और लोकसभा में भाजपा का ही कब्जा रहा है और उदयपुर नगर निगम पर तो लगातार छठा बोर्ड भी भाजपा का ही बना है। इसलिए यहां पर भाजपा काफी मजबूत मानी जाती है, ऐसे में गुलाबचंद कटारिया के बाद भाजपा में दावेदारों की बहुत बड़ी फेहरिस्त सामने आ रही है। प्रमुख छह नामों की बात करें तो उनमें पारस सिंघवी, रजनी डांगी, रविंद्र श्रीमाली, दिनेश भट्ट, अतुल चण्डालिया, डॉ. जिनेंद्र शास्त्री शामिल है। वैसे इनके अलावा भी कुछ नाम है लेकिन उन्हें हाल ही में अन्य विधानसभा क्षेत्रों में पार्टी का चुनाव प्रभारी बना दिया गया है इसलिए अब उनके नाम पर चर्चा नहीं हो रही। वहीं कांग्रेस में प्रमुख छह नामों की बात करेें तो दिनेश श्रीमाली, राजीव सुहालका, सुरेश श्रीमाली, अजय पोरवाल, पंकज शर्मा और गोपाल कृष्ण शर्मा शामिल है। यह सभी दावेदार अपने – अपने हिसाब से मेहनत भी कर रहे हैं और शीर्ष नेतृत्व को येन – केन प्रकारेण मनाने में लगे हुए है। बाहरी दावेदार सब पर भारी गुलाबचंद कटारिया के जाने के बाद उदयपुर शहर से एक तरफ जहां दोनो ही पार्टियों के मजबूत दावेदार अपनी बारी की आस लगाए बैठे हैं, वहीं बाहरी दावेदारों के उदयपुर दौरों ने सभी की नींद उड़ाकर रख दी है। व्हाट्सएप्प और फेसबुक युनिवरसिटी में 24 घण्टे व्यग्ंयबाणों की बौछार करने वाले स्वघोषित राजनीतिक विश्लेषकों ने इन सभी का जीना हराम कर दिया है। दोनो ही पार्टियों में कद्दावर मजबूर होने के साथ मायूस भी दिखने लगे हैं क्यूंकि भाजपा से डूंगरपुर के पूर्व सभापति के.के.गुप्ता अपने स्वच्छता अभियान से पार्टी की निगाहों में एक प्रबल दावेदार के रूप में चढ़े हुए हैं। वहीं गुटों में बंटी पार्टी के कार्यकर्ता कभी वसुंधरा राजे को यहां से लड़ने का प्रस्ताव देते हैं तो कभी सुनील बंसल, गजेंद्र सिंह शेखावत और सीपी जोशी का नाम सामने आता है। वहीं कांग्रेेस में दिनेश खोड़निया, गौरव वल्लभ और पवन खेड़ा के नामों पर चर्चा आम है और अब दिनेश खोड़निया और गौरव वल्लभ ने तो दबे स्व२ों में कबूल भी कर लिया है कि पार्टी कहीं से भी टिकिट देगी चुनाव लड़ लेेंगे। दोनों ही पार्टियों के यह दिग्गज काफी मजबूत स्थिति में है और वह चाहें जहां से टिकिट ला सकते हैं, यह राजनीति के धुरंधरों का मानना हैं। चित्तौड़, राजसमंद, मावली के बाद क्या अब उदयपुर शहर ? मेवाड़ में सबसे पहले चित्तौड़गढ़ में बाहरी उम्मीदवारों ने घुसपैठ की और सत्ता में आए, उसके बाद राजसमंद और मावली में भी बाहरी का ही बोलबाला रहा। राजनीतिक पार्टियों के निर्देश के आगे कार्यकर्ता मजबूत होने के बावजूद मौन रहे और इसी आस में लगे रहे कि अगली बार तो पार्टी उन्हें ही मौका देगी, लेकिन यह भी एक सत्य है कि जो भी चुनाव लड़ेगा, चाहे वह हारे या जीते कम से कम तीन बार तो उसे ही मौका मिलेगा। पहले अपने लिए लड़ो, फिर पार्टी के लिए ! किन्तु अब दोनो ही बड़ी राजनीति पार्टियों में बाहरी के विरोध की सुगबुगाहट तेज हो गई है। बहरहाल खुलकर तो कोई अभी तक सामने नहीं आए है लेकिन अगर ऐसा होता है तो इस बार विरोध जोरदार होगा। इतने सालों से शहर की पार्टी के कार्यक्रमों में जाजम बिछाने से लेकर जनमुद्दों पर शहर की सड़कों को जाम करने तक जो मेहनत की है, वह अभी भी काम नहीं आई तो राजनीति में रहने का ही क्या मतलब ? मौका नहीं मिलने वालों का तो धन भी गया और धरम भी। इसलिए उन सभी उम्मीदवारों का पहले बाहरी का विरोध एक होकर करना होगा और फिर मौका मिलता है तो विरोधी पार्टी के शहरी प्रत्याशी को हराने के लिए लड़ना होगा। उदयपुर शहर संभाग मुख्यालय होने की साथ ही विश्व में अलग ही पहचान रखता है लेकिन यहां बाहरी का राज हो जाएगा तो फिर राजनीतिक पार्टियों का शहरी नेतृत्व भी किसी काम का नहीं कहलाएगा, चरनोट में तो हर कोई आकर कब्जा जमा सकता है।