ऐसी क्या मजबूरी है भाई साहब !
1 min read*महापौर जीएस टांक की इच्छा पूरी कर अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह करें*
उदयपुर, 14 दिसम्बर। लेकसिटी में जब से शहरी सरकार चुनी जा रही है तब से भारतीय जनता पार्टी ने ही अपना परचम लहराया है। पहली चुनी गई सभापति, दिवंगत किरण माहेश्वरी से लेकर महापौर जीएस टांक तक सभी भाजपा से ही रहे हैं। छह बोर्डों में कांग्रेस कभी भी भाजपा की जीत के तिलिस्म को नहीं तोड़ पाई। पिछले 28 सालों से चल रही शहरी सरकार के जिम्मेदार भले ही कितनी डींगे हांक ले, लेकिन इसेे एक ही शख्स चला रहा है, उसकी इच्छा के बिना यहां पत्ता भी नहीं हिलता और जिसने भी बगावत की कोशिश की, उसका राजनीतिक भविष्य खत्म ही समझों। जी हां, वह शख्स है मेवाड़ भाजपा के कद्दावर नेता गुलाबचंद कटारिया, जिन्हेें भाजपा के भाई साहब नाम से अरसे से पुकारा जाता रहा है। पार्षदों के टिकिट चयन से लेकर महापौर, उप महापौर, समिति अध्यक्ष और समिति सदस्यों तक के लिए अंतिम मुहर भाई साहब की ही लगती है। कभी – कभी बगावती तेवर भी सत्तापक्ष दिखाता है, तो उसमें भी भाई साहब की मंजूरी ही रहती हैं क्यूंकि यह सब कराकर यह जताने की कोशिश की जाती हैकि शहरी सरकार के बाद प्रदेश या केंद्र की सरकार में जाना भी है तो भाई साहब के सामने नतमस्तक होना ही पड़ेगा और हाल ही में यह संकेत दे भी दिया गया है, लेकिन इन सबके बीच एक शख्स काफी परेशान है और उसने कई बार अपनी मंशा जाहिर करते हुए इस्तीफे की पेशकश भी कर दी, फिर भी भाई साहब की ऐसी क्या मजबूरी है कि संघ से जुड़े वयोवृद्ध नेता की इच्छा पूरी नहीं कर रहे हैं।
महापौर टांक को सेवामुक्त करने में दिक्कत क्या?
अरसे तक अपनी सेवा बतौर वरिष्ठ अधिशाषी अभियंता देते हुए उदयपुर का नाम रोशन करने वाले जीएस टांक को इस बार महापौर बनाया गया और उसी समय ओबीसी वर्ग के कई बड़े और भाजपा के लिए तन – मन – धन न्यौछावर करने वाले कर्मठ कार्यकर्ताओं के सपने टूट गए। मीडिया से दूरी बनाने वाले जीएस टांक की बतौर महापौर कोई बड़ी उपलब्धि तो नहीं रही, लेकिन वह हमेशा यहीं कहते दिखे की मुझे तो महापौर नहीं रहना, मुझे इस्तीफा देना है। मैं तो जानता ही नहीं हूं भाजपा में कौन किस मण्डल से है और कौन शहर या देहात का कार्यकर्ता है। इतना ही नहीं कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में आई श्री टांक की पत्नी के निधन बाद से ही उन्हें शूगर ज्यादा रहने लगी। पिता की परेशानी को देखते हुए श्री टांक के पुत्र रवि टांक ने भी भाजपा के जिम्मेदारों से गुजारिश की थी कि उनके पिता को कार्यमुक्त करें, लेकिन जैसे – तैसे एक साल और निकल गया। फिर भी महापौर जीएस टांक की वहीं मंशा है कि उन्हें सेवा मुक्ति दे दी जाए। ऐसा नहीं है कि बोर्ड में भाजपा के ओबीसी वर्ग के पार्षद नहीं हो। मनोहर चौधरी, छोगालाल भोई, रेखा ऊंठवाल, मोहन गुर्जर, देवेंद्र साहू आदि ऐसे नाम है जो गद्दीनसीन होकर महापौर की जिम्मेदारी संभाल भी सकते हैं और यदि उन्हें नहीं भी बनाया जाए तो कई ऐसे कार्यकर्ता भी है जो अन्य पिछड़ा वर्ग के होने के साथ – साथ लम्बे समय से किसी बड़ी जिम्मेदारी की तलाश में हैै।
महापौर की पुत्रवधू ने भी बीच
रास्ते में छोड़ दिया था वार्ड !
आपको यह जानकार हैरानी होगी कि महापौर जीएस टांक की पुत्रवधू नमीता टांक ने पारिवारिक कारणों के चलते एक साल बाद ही उदयपुर छोड़ दिया था, वार्ड की जनता अपनी पार्षद को खोजती रही लेकिन वह कहीं नहीं मिली। मीडिया से बातचीत में भी नमीता ने उदयपुर छोड़ देने की बात स्वीकारी थी, लेकिन फिर भी उस वार्ड में उप चुनाव नहीं करवाए गए और उसी वार्ड से भाजपा की ओर से नमिता के ससुर जीएस टांक को टिकिट दिया गया और जीतने के बाद महापौर बना दिया। हालाकि महापौर जीएस टांक ने भी परेशान होकर पद से हटने की मंशा जाहिर की, लेकिन उनकी सुनी ही नहीं जा रही। वैसे महापौर को यहां किसी को कहने की जरूरत ही नहीं है, वह सीधे कलेक्टर या आयुक्त को अपने पार्षद पद के त्यागपत्र के साथ महापौर पद से हटने का इच्छा जाहिर कर पदमुक्त हो सकते हैं। इसके लिए किसी से भी स्वीकृति मांगने की जरूरत ही नहीं होनी चाहिए।
ऐसी क्या मजबूरी ?
शहर के गली, नुक्कड़ों, चौराहों पर चर्चा-ए-आम तो यही है कि आखिर भाई साहब की मजबूरी क्या है। जीएस टांक अपनी इच्छा से पदमुक्त होना चाहते है तो क्यूं उन्हें रोका जा रहा है, उनकी जगह पर कई ऐसे बड़े नाम है जो इस कुर्सी और इसके नाम को बड़ी सिद्दत से दो सालों तक सुरक्षित बचाए रख सकते हैं और इससे फायदा शहर की सरकार के साथ – साथ भाजपा को भी होना तय है। लेकिन इन सबके बीच दिक्कत यहीं है कि अगर किसी ने अच्छा काम करके जनता के बीच अपनी पकड़ मजबूत कर दी तो कहीं वह विधायक पद के प्रबल दावेदारों में शामिल नहीं हो जाए और शायद यही मजबूरी रही होगी की मजबूर महापौर की इच्छा पूरी नहीं की जा रही। वरना भाई साहब ने तो निगम की प्रीबोर्ड बैठक में भी कईयों को लताड़ते हुए कहा था कि चार दिसम्बर के बाद वे सबसे व्यक्तिगत मिलकर कठोर कदम उठा सकते हैं। उस तारीख को निकले भी कई दिन बीत गए लेकिन कुछ नहीं हुआ और सभी उस बात को ही भूल गए जो शहरी सरकार का सबसे गर्म मुद्दा थी।